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’अज्ञानाश्रय ट्रस्ट‘ के वैचारिक मंच को बहुमुखी सामाजिक मुख्य धारा से जोड़ने का प्रयास –
बहुमुखी समाज की मुख्यधारा से जुड़ने के लिए हमें यह जानना होगा कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और वह अपने आसपास घटित हो रही चीजों के लिए किन -किन चीजों का इस्तेमाल करता है, जिनके द्वारा वह जानकारियों को , खबरों को प्राप्त करता है। वह अपने अन्तर्मन की जिज्ञाशाओं को शान्त करने के लिए किन – किन साधनों का इस्तेमाल करता है। वैचारिक मंच को बहुमुखी सामाजिक मुख्यधारा से जोड़ने के लिए हमें सबसे पहले निम्नवत प्रयास करना चाहिए –
1.पत्रकारिता, मैगजीन, बेवसाईट,फेसबुक सोशल नेटवर्किंग, फेड सर्कल, एन0 जी0 ओ0 सोसायटी ट्रस्ट वर्किंग प्लेटफार्म और सोशल वर्क करने वाली संस्था होती है। उनके माध्यम से समाज में और पूरे संसार में जागरुकता फैलानी चाहिए।
2. हमें प्रयास करना चाहिए कि जिस सामाजिक परिवेश में , समाज में हम जिन लोगों के साथ उठते बैठते हैं, हमारा जो सोशल नेटवर्किंग है, हमारे काम करने की जो जगह है। उनके साथ भी हम विचारों का आदान प्रदान कर सकते हैं।
3. हर आदमी अपनी जिज्ञासाओं को शांत करने के लिए अलग – अलग प्रकार के माध्यमों का इस्तेमाल करता है।
4. हमें समय – समय पर प्रमोशन एक्टिविटीज भी सहारा लेना चाहिए।
5. हमें स्टेज के माध्यम से, पत्रकारिता के माध्यम से अपने विचारों का आदान प्रदान करना चाहिए। उपरोक्त बिंदुओं को ध्यान में रखते हुए अपनी एक ऐसी बेवसाईट का इस्तेमाल करना चाहिए, जहां आदमी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का इस्तेमाल करके करके पलभर में सारी विविध जानकारियों को किसी भी जगह प्राप्त कर सकता है।
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राष्ट्रीय और विश्व स्तर पर ’व्यापक जनमानस और राजनैतिक व्यवस्था के मध्य ’प्रशासनिक‘ और न्यायिक व्यवस्था‘ का अपराध मुक्ति के लिए रचनात्मक स्वरूप –
राष्ट्रीय और विश्व स्तर पर ’व्यापक जनमानस और राजनैतिक व्यवस्था के मध्य ’प्रशासनिक‘ और न्यायिक व्यवस्था‘ निम्नवत् होनी चाहिए, जिससे विविध अपराध न के बराबर हो। सबसे पहले हमें यह जानना होगा कि वास्तव में जो भी दंड प्रक्रिया, दंड प्रक्रिया विधि को अपना रहे हैं, क्या वह दंड प्रक्रिया विधि उस समाज में उपस्थित जनमानस के द्वारा सम्पूर्ण रूप से स्वीकार है कि नहीं और यह तभी सम्भव होगा, जब उन संपूर्ण जनमानस का विश्वास उस दंड प्रक्रिया विधि पर हो, और यह विश्वास लाने के लिए हमें गहराई से इस बात पर अध्ययन करना होगा कि कोई भी अपराध या जो भी अपराधी किसी अपराध में संलग्न होता है तो उसके पीछे मुख्य कारण क्या है, उसकी आवश्यकता क्या है। क्या वह पेशेवर अपराधी है या वह मजबूरी वश अपपराध करने के लिए विवश हुआ है। हमें सम्पूर्ण रूप से इस बात पर गहन अध्ययन करना होगा कि जो अपराधी अपराध करने के कारण दंड प्राप्त करता है , वह भविष्य में उस दण्ड को प्राप्त करने के पश्चात् दुबारा अपराध करने की प्रवृत्ति को हमेशा के लिए त्याग दे। ऐसा तभी सम्भव है जब वह अन्तः मन से अपने अपराध का प्रायश्चित करे। क्योंकि जब तक कोई भी अपराधी अपने पापों का प्रायश्चित मन से स्वतः नहीं करेगा तब तक हम चाहे कितना भी दडं उसको प्रदान करें, उसकी अन्तरात्मा और उसका अन्तर्मन कभी भी उसके अपराध से उसको मुक्त नहीं कर पायेगा। राष्ट्रीय और विश्व स्तर पर ’व्यापक जनमानस और राजनैतिक व्यवस्था के मध्य ’प्रशासनिक‘ और न्यायिक व्यवस्था‘ कुछ इस प्रकार होनी चाहिए जहां पर हर स्तर के प्राणी को सही न्याय मिल सके। प्रशासनिक व्यवस्था में , न्याय करने वाला न्यायाधिकारी, जब कोई भी न्याय करे तो उसे अपने अन्तर्मन से इस बात को पूर्ण रूप से स्वीकार करना होगा कि वह जो भी न्याय कर रहे हैं वह मात्र उपस्थित साक्ष्य और सबूतों के आधार पर न होकर, जो मुख्य कारण उस अपराध का होने का है उसकी जड़ में जाकर गहराई से विचार करे और उस पाप, अपराध के होने का जो मूल कारण है, उस मूल कारण को ढ़ूढ़ते हुए, उसे समाप्त करें । क्योंकि जब तक वह मूल कारण को समाप्त नहीं करेगा, उस अपराधी के अन्दर उपस्थित उसके अन्तर्मन का अपराध कभी भी समाप्त नहीं हो पायेगा । इस क्रम में अपराधी को स्वयं अपराध बोध होगा और वह उससे दूर रहने का प्रयास करेगा। जब वह पूर्ण रूप से व्यवस्था का अंग बनेगा , तभी हम समाज से और समाज में उपस्थित जनमानस को अपराध मुक्त कर सकते हैं। इस पूरी प्र्रिक्रया में विविध पत्रकारिता को निरतं र रचनात्मक सहयोग बिना किसी भेद भाव के देना चाहिए। इसक्रम में हम एक सीमा तक विविध अपराधों पर यथासम्भव नियंत्रण कर सकते हैं।
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’सनातन धर्म‘ से ’सर्वधर्म समभाव‘ की परिकल्पना मानवहित में की जा सकती है-
हां, सनातन धर्म से सर्वधर्म समभाव की परिकल्पना मानव हित में की जा सकती है, क्योंकि सनातन धर्म एक ऐसा धर्म है जो यह आधार देता है कि सभी धर्मो को समान आदर के साथ देखा समझा जाता है। सनातन धर्म यह कभी भी नहीं सीखाता कि हम किसी भी धर्म का अपमान करें या किसी भी अलग धर्म के व्यक्ति से मतभेद रखें। सनातन धर्म अपने आप में पूर्ण है। इसलिए यह कहना अतिश्योक्ति न होगी कि सनातन धर्म ही ऐसा धम र् है , जो सर्व समभाव की परिकपना मानवहित में कर सकता है। यह प्रत्येक मानव में बिना भेदभाव किए उसे अपनाता है और कभी भी कोई ज्ञान प्रदान करने में संशय मात्र भी भेद भाव नहीं करता है।
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पूर्व की ’राजाश्रय व्यवस्था‘ और वर्तमान की ’राजनैतिक व्यवस्था‘ का जनमानस में उपयोग –
पूर्व राजाश्रय व्यवस्था और वर्तमान की राजनीतिक व्यवस्था में वर्तमान की राजनीतिक व्यवस्था पूर्व राजाश्रय व्यवस्था से कहीं अधिक मानवहित में उपयोगी है। इसके मुख्य निम्न कारण हैं-
1.पूर्व राजाश्रय व्यवस्था में शिक्षा और पदों को ग्रहण करने का अधिकार उनकी जातियों के आधार पर दिया जाता था। वहां पर राजा पर कोई प्रश्न नहीं उठा सकता था, या जो पदाधिकारी हुआ करते थे, उनके ऊपर दोषारोपण करने का तो कोई दुस्ससाहस नहीं कर सकता था। अपने स्वयं के अधिकार उन्हें मांगने पड़ते थे।
2.यदि राजा विवेकी है तो प्रजा, ईश्वर को बहुत धन्यवाद प्रदान करती थी।
3. यदि राजा विवेकशील न हुआ तो वहां की प्रजा यही सोचती थी कि वह कब तक उनके सानिध्य में अपना जीवन यापन करेगी। उन्हें उस राजा से कब मुक्ति मिलेगी, क्योंकि उनके अधिकार सीमित होते थे। वहां सम्पूर्ण रूप से उचित न्याय नहीं हो पाता था। वहीं पर हम देखते हैं कि हमारी वर्तमान व्यवस्था की राजनीतिक व्यवस्था पूर्ण रूप से लोकतन्त्र पर आधारित है। जहां पर व्यवस्था का मुख्य व्यवस्थापक (प्रधानमंत्री/राष्ट्रपति) प्रत्येक व्यक्ति के द्वारा प्रदान किए गए उसके मतों के आधार पर बनता है। उसे अपने कार्य और प्रयास के द्वारा अपने पद और योग्यता को निरंतर सिद्ध करना पड़ता है। यदि वह अपने कार्य को जनमानस के हित में सम्पन्न नहीं कर पाता है तो आगे के चुनाव में जनता अपने मतों द्वारा उसे पदमुक्त कर सकती है। अतः वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था, पूर्व राजाश्रय व्यवस्था से ज्यादा उपयोगी है। इसमें व्यापक जनमानस का ज्यादा हित है।
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धर्म/अध्यात्म से राष्ट्रीय और विश्व स्तर पर रचनात्मक मानवीय समाधान की सम्भावना –