श्री राजेश मिश्रा

इस संसार का जीवन तभी सार्थक हो सकता है जब वह उन पर -लौकिक जीवन की एक कड़ी हो, अन्यथा अगर इहलौकिक जीवन सिर्फ इस लोक का है , यहां प्रारम्भ होकर यहीं समाप्त हो जाता है, तब मनुष्य का जीवन पैदा होना और मिट्टी में मिल जाना है, इसके सिवाय कुछ नहीं। हमारा यह जीवन तभी सार्थक कहा जा सकता है जब हम इस भौतिक जीवन के आगे जो कुछ है उसके लिए इस जीवन को तैयारी का अवसर मानें। अगर यह जीवन अपने आप में स्वतन्त्र है, किसी भावी जीवन की तैयारी नहीं है, तो यह व्यर्थ है। हम यह सोचने पर विवश हो जाते हैं कि यथार्थ सत्ता शरीर की है या आत्मा की। जैसे – जैसे हम ज्ञान के क्षेत्र में प्रवेश करते जाते हैं, वैसे – वैसे यह सिद्ध होता जाता है कि हमारा ज्ञान आत्मा का ज्ञान है । भौतिक जीवन को आध्यात्मिक जीवन से भिन्न समझ लेने का परिणाम यह होता है कि इन्द्रिय युक्त भौतिक जीवन को हम सब कुछ समझ लेते हैं। इन्द्रियों का जीवन विषय भोग के लिए है, ऐसे में मनुष्य किसी दिशा में न जाकर जीवन के मार्ग से भटक जाता है। जीवन की दिशा निश्चित होने पर मनुष्य किसी संदेह के बगैर अपनी जीवन नैया उस ओर खेने लगता है। यदि उसे दिशाभ्रम हो जाए तो हर समय वह संदेह में पड़ा रहता है कि जीवन के मार्ग में सत्य क्या है, सही रास्ता क्या है। अगर वही जीवन सब कुछ है और परमार्थ कुछ नहीं, तो यह सोच कर वह भौतिकवादी होने लगता है, परन्तु वह भौतिक जीवन अन्तिम अवस्था नहीं है। यह आगे के दिव्य जीवन की एक कड़ी मात्र है। यदि यह दृष्टिकोण अपना लिया जाय तो हम आध्यात्मिक मार्ग पर चल सकते हैं। मनुष्य के जीवन में भौतिकता और आध्यात्मिकता, दोनों का होना अनिवार्य है। भौतिकता साधनों के लिए है और आध्यात्मिकता साध्य है। जीवन की सार्थकता इसी में है कि हम शरीर को साधन मानकर आत्मिक जीवन के विकास के लिए प्रयास करें।
(विशेष – उपरोक्त अंश ’वार्षिक समारोह (11.10.20) से साभार लिया गया है।)
  • राष्ट्रीय और विश्व स्तर पर ’व्यापक जनमानस और राजनैतिक व्यवस्था के मध्य ’प्रशासनिक‘ और न्यायिक व्यवस्था‘ का अपराध मुक्ति के लिए रचनात्मक स्वरूप – 
विश्व स्तर पर व्यापक जनमानस सहयोग एवं राजनीतिक व्यवस्था के मध्य प्रशासनिक एवं न्याय व्यवस्था कैसी होनी चाहिए, इस पर मेरा मत यह है कि व्यापक जनमानस सहयोग और राजनीतिक व्यवस्था दोनो एक दोनों के पूरक हैं, क्योंकि जनमानस के सहयोग के बिना राजनीतिक व्यवस्था एवं उसके उद्देश्यों की पूर्ति करना बहुत कठिन काय र् है। सामाजिक व्यवस्था को उन्नत बनाने के लिए इन दोनों व्यवस्था को समानान्तर रूप से एक साथ चलना होगा, जिसमें पत्रकारिता एक महत्वपूर्ण माध्यम का कार्य करती है और दोनों जनमानस सहयोग और राजनीतिक व्यवस्था के बीच एक परस्पर समन्वय स्थापित करती है। पत्रकारिता का किसी एक तरफ झुकाव या उसका एक तरफ समर्थन करना दोनों व्यवस्थाओं के बीच एक बहुत बड़ी खांईं एवं समस्याओं को जन्म दे सकता है और ऐसे कई सारे उदाहरण हैं जो इसको चरितार्थ करते हे। पत्रकारिता में देशभक्ति,, सम्वेदना, व्यवस्था और ईमानदारी का भाव बहुत ही आवश्यक हैं ।
  • पूर्व की ’राजाश्रय व्यवस्था‘ और वत र्मान की ’राजनैतिक व्यवस्था‘ का जनमानस में उपयोग –
मेरे विचार में राजाश्रय व्यवस्था और वत र्मान की राजनीतिक व्यवस्था, दोनों ही के कुछ लाभ और कुछ खामियां है। राज्य व्यवस्था अपने समय में एक छोटे क्षेत्र में राजाओं की अपनी व्यवस्था होती थी और हर राज्य के अलग – अलग नियम कानून और उनको चलाने की प्रक्रिया होती थी। आज की राजनीतिक व्यवस्था में देश के पूरे राज्यों का एक प्रमुख व्यवस्थापक होता है और पूरे राष्ट्र का एक कानून होता है, उसको चलाने की एक व्यवस्था जो पूरे राज्य में सामान्य रूप से उसको माना जाता है और उसका पालन किया जाता है। इन दोनों ही व्यवस्थाओं में कुछ लाभ व हांनि है, जो कि निम्न प्रकार है –
  1. प्रत्येक राज्य के अलग – अलग राजा होते थे, यदि किसी एक राज्य का राजा बरा होता था तो दूसरे राज्य में उसकी बुराई का कोई असर नहीं पड़ता था, किन्तु राजनैतिक व्यवस्था में ऐसा नहीं है।
  2. राजाश्रय व्यवस्था के अन्तर्गत राज्यों को आपस में समन्वय बनाए रखने में बहुत ही कठिनाई होती थी, किन्तु राजनीतिक व्यवस्था में एक ही कानून व्यवस्था होने के कारण आपस में समन्वय बनाना आसान है।
  3. राजाश्रय व्यवस्था लोकतान्त्रिक व्यवस्था के अन्तर्गत नहीं मानी जा सकती किन्तु राजनीतिक व्यवस्था एक लोकतान्त्रिक व्यवस्था है जिसमें पूरे राज्य के लोग अपने नेतृत्व का चयन करते हैं। उपरोक्त बिंदुओं को देखें तो यह स्पष्ट है कि दोनों व्यवस्थाओं के अपने कुछ लाभ और कुछ खामियां हैं। अगर हम राजाश्रय व्यवस्था की परिकल्पना करें , वह किसी भी तरीके में चरितार्थ नहीं हो सकता हैं। अतः हमें राजनीतिक व्यवस्था के अन्तर्गत ही अपने समाज और जनमानस की उन्नति के विकल्पों पर विचार कर आगे बढ़ सकते हैं।
– श्री राजेश मिश्रा (आजीवन न्यासी सदस्य)
(विशेष- उपरोक्त वक्तव्य/विचार वार्षिक समारोह/सामान्य बैठक (05.11.21 – 20.11.21) का आवश्यक अंश है। )