भौतिकता और आध्यात्मिकता के मध्य मानवता का विकास शाश्वत मानवीय मूल्यों के विकास के रूप में हो सकता है। ये मूल्य हैं – दया, करूणा, सहिष्णुता, क्षमा, परोपकार, समानुभूति, प्रेम, भाई चारा, कृतज्ञता, बड़ों का आदर। क्रोध और घृणा से दूर रहना तथा धैर्य एवं सहनशीलता का अभ्यास करना।
– श्रीमती मृदुला दुबे (प्रबंधक न्यासी सदस्य)
(विशेष – उपरोक्त अंश ’वार्षिक समारोह (11.10.20) से साभार लिया गया है।)
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अज्ञानाश्रय ट्रस्ट‘ के वैचारिक मंच को बहुमुखी सामाजिक मुख्य धारा से जोड़ने का प्रयास –
सभी माननीय सदस्यों को समय – समय पर अपना विचार न्यास के उपयोगार्थ प्रस्तुत करना चाहिए।
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राष्ट्रीय और विश्व स्तर पर ’व्यापक जनमानस और राजनैतिक व्यवस्थ के मध्य ’प्रशासनिक‘ और न्यायिक व्यवस्था‘ का अपराध मुक्ति के लिए रचनात्मक स्वरूप –
’व्यापक जनमानस‘ और ’राजनैतिक व्यवस्था‘ के मध्य ’प्रशासनिक‘ और ’न्यायिक व्यवस्था‘ कैसी होनी चाहिए जिसमें अपराध न के बराबर हो, एक अत्यंत ही व्यापक विषय है जिसमें पृथ्वी पर मानव का उद्भव, विभिन्न सभ्यताओं, संस्कृतियों का, उनके स्थान, काल एवं परिस्थितियों के अनुरूप विकास ; विभिन्न प्रशासनिक एवं न्यायिक व्यवस्थाओं का विकास, उन पर आधुनिक काल का प्रभाव, उनकी गतिशीलता/कठोरता आदि विभिन्न पहलू सन्निहित हैं, जिनको कदाचित एक सूत्र में पिरोकर समस्त मानवता हेतु एक सर्वमान्य व्यवस्था बना पाना सम्भव नहीं है। अपराधों की विविधता भी अनेक है, मानव जीवन से सम्बन्धित अपराध, सामाजिक वयवस्थाओं सम्बन्धी अपराध, आर्थिक अपराध, राज्य के विरुद्ध अपराध आदि। जहां किसी समाज में दूसरे धर्म , मत, संप्रदाय आदि के सम्बन्ध में हत्या जैसे कृत्य को भी धार्मिक कार्य से जोड़ा जाय, वहां एक जैसी व्यवस्था समस्त मानव समाज के लिए बना पाना एक दूर का सपना जैसा ही है। हर देश की न्यायिक व प्रशासनिक व्यवस्था वहां के लोगों के रूप से लम्बे संघर्षों के बाद विकसित किया है, उसमें बदलाव जनता ही कर सकती है। जनता में वहां के व्यवस्था के प्रति यदि कोई आक्रोश है तो इसकी आवाज वहीं से उठनी चाहिए।
निश्चय ही अपराधों में कमी मात्र प्रशासनिक व न्यायिक व्यवस्था द्वारा ही नहीं किया जा सकता। इस हेतु मानवीय मूल्यों का विकास, एक समुचित ’सिविल सेंस‘ ( civil sence) का विकास, ईश्वर के प्रति भय आदि प्रमुख कारक सहायक हो सकते हैं।
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’सनातन धर्म‘ से ’सर्वधर्म समभाव‘ की परिकल्पना मानवहित में की जा सकती है –
’सनातन धर्म‘ से ’सर्वधर्म समभाव‘ की परिकल्पना की जा सकती है। यही एकमात्र धर्म है जो न केवल समस्त मानव में बल्कि समस्त प्राणीमात्र में ईश्वर का अंश देखता है। ईश्वर प्राप्ति के सभी धर्मों , मतों, पंगतियों को मान्यता प्रदान करते हुए उसे ईश्वर प्रप्ति का माध्यम बताता है। इस सम्बन्ध में आधुनिक काल ( उन्नीसवीं शताब्दि का उत्तरार्द्ध) में उत्पन्न श्री रामकृष्ण परमहंस के विचार एवं जीवन ज्वलंत उदाहरण हैं जिन्होंने न केवल सनातन धर्म बल्कि इस्लाम धर्म एवं ईसाई धर्म का भी कुछ दिनों तक अनुसरण कर ईश्वर प्राप्ति करके दिखाया। उनके विचारों को स्वामी विवेकानन्द ने ’विश्वधर्म सम्मेलन‘ में प्रसारित किया।
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पूर्व की ’राजाश्रय व्यवस्था‘ और वर्तमान की ’राजनैतिक व्यवस्था‘ का जनमानस में उपयोग –
पूर्व ’राजाश्रय व्यवस्था‘ और वर्तमान की ’राजनैतिक व्यवस्था‘ में कौन मानवहित में ज्यादा उपयोगी है, एक अत्यंत ही विवादास्पद विषय हमारे देश के सम्बन्ध में होगा। अब प्रजातन्त्र की नींव यहां अत्यन्त मजबूत हो चुकी है, लोगों ने एक लम्बे अन्तराल से स्वतन्त्रता एवं स्वच्छंदता का स्वाद चख लिया है। पुनः ’राजाश्रय‘ व्यवस्था की तरफ लौटना अब सम्भव नहीं है। इसके अतिरिक्त दोनों व्यवस्थाओं की अपनी – अपनी विशेषता और कमियां हैं। छोटे आबादी वाले देशों में आज भी ’राजाश्रय व्यवस्था‘ एक या दूसरे रूप में प्रचलित है, परन्तु बड़े देशों में या तो प्रजातन्त्र है अथवा ’साम्यवादी‘। हमें व्यवस्था में सुधार अपनी ही व्यवस्था में करने हेतु सोचना चाहिए।
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धर्म/अध्यात्म से राष्ट्रीय और विश्व स्तर पर रचनात्मक मानवीय समाधान की सम्भावना –